Monday, August 6, 2012

शब-ए-वस्ल में जब चाँद को उतरते देखता हूँ|
मनाता हूँ उसे सूरज को जब उभरते देखता हूँ|


समझ न आये तब उसे मायने तेरी मोहब्बत के,
सींखचों पर अब उसे सर को रगड़ते देखता हूँ|


यूं तो काबिल नहीं तेरे पर बढ़ जाती है हिम्मत,
कलियों पर जब मैं भंवर को मचलते देखता हूँ|


ये कुछ शेर और देखिये खास हैं ये ;-)


तुम अकेले नहीं मैं कईयों की आँखों में खटकता हूँ,
मैं तब हैरान नहीं होता जब तुम्हें सुलगते देखता हूँ|


बेवजह दम निकलता है मेरी अदाओं से उनका,
तरस आता है जब उन्हें दांत कुतरते देखता हूँ|


अरे और भी कई मसाइल हैं गुफ्तगू करने की बावत,
पर ये क्या मैं तो खुद को तुम्हारी रगों में दौड़ते देखता हूँ|


~ललित किशोर गौतम

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