मैं अपने झोंपड़े को भी महल कहता हूँ|
टूटी फूटी ही सही पर ग़ज़ल कहता हूँ|
मुहब्बत के फ़साने सुनने की खातिर,
वो जहन्नुम कहता है मैं चल कहता हूँ|
कुछ दिन हुए समंदर किनारे खिला है जो,
उसे सियासत की कीचड़ का कमल कहता हूँ|
दरअस्ल मेरा मिज़ाज ही कुछ ऐसा है,
टूटी फूटी ही सही पर ग़ज़ल कहता हूँ|
मुहब्बत के फ़साने सुनने की खातिर,
वो जहन्नुम कहता है मैं चल कहता हूँ|
कुछ दिन हुए समंदर किनारे खिला है जो,
उसे सियासत की कीचड़ का कमल कहता हूँ|
दरअस्ल मेरा मिज़ाज ही कुछ ऐसा है,
वरना शेर तो मैं काफी सरल कहता हूँ|
~ललित किशोर गौतम
~ललित किशोर गौतम
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