Friday, November 2, 2012

ये प्रणय निवेदन बहुत हुए अब,
अंतस में ज्वाला उठती है|
आर्य रक्त की 'अनल' ह्रदय में,
बारम्बार धधकती है|

वर्तमान इतिहास को पढ़कर,
ये दिखा रहा मैं हूँ उदार|
पुष्यमित्र, परशुराम का चोगा,
बोलो कैसे मैं दूं उतार|

जिस समय रेनेसाँ की आग
यवन में धधकी थी|
दर्शन की जाने कितनी पुस्तक,
हमने जा हिन्द में पटकीं थी|

जाओ जाकर पूछो तुम,
दजला-फ़रात उन नदियों से|
सिन्धु पार कर कोई निवासी,
आया है क्या सदियों से|

मूसा आये, ईसा आये,
दाऊद और मोहम्मद आये|
प्रश्नचिन्ह उनके वजूद पर,
आर्यों ने क्या कभी लगाये|

कर दिया धर्म का स्वरुप विकृत,
समाज के ठेकेदारों ने|
तेल डालकर आग लगाई ,
दिल्ली के सियासतदारों ने|

मैकाले की शिक्षा ने इतिहास
है कुचला बुरी तरह|
विडंबना है भारत की इसने
स्वीकारा उसी तरह|

~ललित किशोर गौतम

ख़ुद को दूसरों से बेहतर तुम उस दिन कहना, जब तुम लोगों की पनाहगार निगाह समझो|

चापलूसों से मिली तारीफ़ को आह समझो|
दुश्मनों की गाली को तुम इस्लाह समझो|

परीशां न हो तुम हमें इस जंगल में देखकर,
तफ़रीह करते हैं इसे हमारी सैरगाह समझो|

तालीम किसी से भी मिले लपककर जाना,
इसे बुलंदी पर पहुँचने की इक राह समझो|

ख़ुद को दूसरों से बेहतर तुम उस दिन कहना,
जब तुम लोगों की पनाहगार निगाह समझो|

शब गुज़ारता हूँ मैं बस पहलू बदल बदलकर,
इश्क़ में हूँ मेरी दुनिया अब तुम तबाह समझो|

गाज़ा, येरूशलम, कंधार मेरे ख़्वाबों में आते हैं,
हुक़ूमतों खौफ़ खाओ मजलूमों की कराह समझो|

~ललित किशोर गौतम

Monday, August 6, 2012

उसके मेरे बीच कुछ नज़दीकियाँ आतीं|
काश मुझे ग़ज़ल की बारीकियां आतीं|

दरवाज़े खरीदता है संगदिल शहर सारा,

नरमदिली आती गर खिड़कियाँ आतीं|

गुल भी यहाँ कांच के मोहताज हो गए,

समझे! यहाँ क्यों नहीं तितलियाँ आतीं|

जो दो वक़्त की चाय पी लेते संग उनके,


क्यों बेवक्त उन चेहरों पे झुर्रियां आतीं|

गर ग़ुरूर पे काबू और जेब ढीली रखते,

भटकना न पड़ता जब सर्दियां आतीं|

~ललित किशोर गौतम
जो मैं होता शहंशाह तो मेरा भी हरम होता|
दीदार-ए-हुस्न को हर रोज़ इक सनम होता|

मुझको शिकायत नहीं कि दर्द हिस्से आया,

उसे भी देता तो इस दर्द का असर कम होता|

हरचंद कोशिश की पर अंजाम सिफ़र निकला,

महबूब तो तब होता जब ये लहज़ा नरम होता|

घुटकर मरते हैं हम जब भी डी.बी. जाते हैं,


ए खुदा तेरा मुझपर थोडा तो करम होता|

मसला है, कि लम्बी उमर बितानी है अभी,

मैं कुछ नहीं कहता गर राहिए अदम होता|

~ललित किशोर गौतम
मैं अपने झोंपड़े को भी महल कहता हूँ|
टूटी फूटी ही सही पर ग़ज़ल कहता हूँ|

मुहब्बत के फ़साने सुनने की खातिर,

वो जहन्नुम कहता है मैं चल कहता हूँ|

कुछ दिन हुए समंदर किनारे खिला है जो,

उसे सियासत की कीचड़ का कमल कहता हूँ|

दरअस्ल मेरा मिज़ाज ही कुछ ऐसा है,


वरना शेर तो मैं काफी सरल कहता हूँ|

~ललित किशोर गौतम
एक अरसा हो गया गाँव को देखे|
उन कच्चे रास्तों को
जो सुना है पक चुके हैं|
वो बम्बा जिसमें पानी की जगह
मूंज ठाड़ी है|
गाँव जाने के रास्ते में पड़ता
वो दुमंजिला टुअल|
वो बाग़ जहाँ खाने को चूरन
धोये थे आलू|
वो मरघट जिसकी कब्रों पर

कच्चे अनार खाए थे दुबककर|
घर के सामने वो चबूतरा
जहाँ जाड़े की रात में खाट पर लेटे
बाबा ने बताया था सप्तऋषियों को|
और याद आता है
वो अम्मा से छिपकर दोस्तों संग
घर घर जाना टेसू लेकर|
वो पातीराम धोबी
चुराकर पी थी जिसकी बीड़ी|
वो गूलर का पेड़
जिसके गूलरों में
हर साल लग जाते थे कीड़े|
वो पोखर जहाँ अपनी भैंसों
संग हम भी नहाते थे|
वो तेलिया जिसकी टोली का हत्था
फेंका था कुँए में|
संकरपुर का वो टेलर जिसने
फैशन वाली बेलबाटम पेंट
सिली थी तीस रुपये में|
वो लंगड़ा नाऊ जिसके डब्बे में
जया प्रदा की तस्वीर थी|

जाऊँगा किसी दिन तथाकथित सभ्य बनकर

सारे असभ्य जो बसते हैं वहां|
 
~ललित किशोर गौतम