उसके मेरे बीच कुछ नज़दीकियाँ आतीं|
काश मुझे ग़ज़ल की बारीकियां आतीं|
दरवाज़े खरीदता है संगदिल शहर सारा,
नरमदिली आती गर खिड़कियाँ आतीं|
गुल भी यहाँ कांच के मोहताज हो गए,
समझे! यहाँ क्यों नहीं तितलियाँ आतीं|
जो दो वक़्त की चाय पी लेते संग उनके,
काश मुझे ग़ज़ल की बारीकियां आतीं|
दरवाज़े खरीदता है संगदिल शहर सारा,
नरमदिली आती गर खिड़कियाँ आतीं|
गुल भी यहाँ कांच के मोहताज हो गए,
समझे! यहाँ क्यों नहीं तितलियाँ आतीं|
जो दो वक़्त की चाय पी लेते संग उनके,
क्यों बेवक्त उन चेहरों पे झुर्रियां आतीं|
गर ग़ुरूर पे काबू और जेब ढीली रखते,
भटकना न पड़ता जब सर्दियां आतीं|
~ललित किशोर गौतम
गर ग़ुरूर पे काबू और जेब ढीली रखते,
भटकना न पड़ता जब सर्दियां आतीं|
~ललित किशोर गौतम