Saturday, October 16, 2010

अंजाम-ए-मुहब्बत

तुमने जबसे कहा, तुमसे वो बेगाना अच्छा/
हमें लगता है इससे तो मर जाना अच्छा/


बड़े खुश थे  उस वक़्त जब रक़ीब बने बैठे थे,
तब लगता था तुम्हारे हाथ का ज़हर भी अच्छा/


बड़ा नाज़ था इस अक्ल-ए-फलातूं पर हमको,
मजबूर थे हम,
था दरअसल शब-ए-वस्ल का तमाशा ही अच्छा/


पूछते हैं मेरे यार तब कहाँ ग़ाफिल था मैं,
मैंने कहा,
था जुंबिश-ए-लबों का वो नज़ारा अच्छा/


भूलने को ग़म, थाम ली कलम, बजाये शराब के,
है रक़ीब बनने से, बनना अदीब का अच्छा/


अब नहीं चैन मुझे इस जन्नती आरामगाह में,
मुझे लगता है इस बियाबाँ में भटकना अच्छा/

Friday, October 1, 2010

"तथाकथित अमन"

सुई के गिरने पर जो आवाज़ सुनाई देती है/
यकसां वही गूँज मुझे, आज सुनाई देती है/
हो गया कायम अमन इसी गफ़लत में हैं लोग,
साज़िश है ये, मुझे तूफ़ान की आहट सुनाई देती है/
 खुश हैं आलमबरदार, फैसला अमन से निपट गया,
मुझे अपनी घाटी में पत्थरों की, गूंज सुनाई देती है/
हुक्मरान बहुत मसरूफ हैं कि, तमाशे का आगाज़ है,
और मुझे नेपथ्य में, इक खनखनाहट सुनाई देती है/
वो है कि आगे बढ़ रहा और गुफ़्तगू करनी है हमें,
ख़तरनाक मुझे ये अजगरी, फुंफकार सुनाई देती है/
ओ अखंड आर्यावर्त्त का, मीठा ख़्वाब देखने वालों,
मुझे चहुओर अलगाव की, आवाज़ सुनाई देती है/
आज महफ़िल है सजी, हर तरफ बरसता रंग है,
कैसे मनाएं हम ख़ुशी, मुफ़लिसी हमारे संग है/

भूख से व्याकुल वो जमघट, है इकठ्ठा द्वार पर,
विकास के दावे पे उनके ये करारा व्यंग्य है/
उधर सुलगता पूर्वोत्तर इधर सिसकता है विदर्भ,
और वहां वेतन का मुद्दा, मचा रहा हड़कंप है/
आज हरियाली पे अपनी मंडरा रहा है लाल साया,
उनको माओ का कहर, लगता मामूली हुडदंग है/
है राष्ट्र आज बाँट रहा, भाषायी आधार पर,
कहते,, नहीं राष्ट्र से लेना देना ये महाराष्ट्र की जंग है/
देखना वाजिब नहीं, मत देख बेजुबानों की तरफ,
खुद खोल ले अपनी जुबां जिस पर लग चुकी ज़ंग है/
हिल उठेंगे वो सिंहासन, ज़रा जोर से हुंकार दे,
और चले मालूम उन्हें, यहाँ पर लोकतंत्र है/

Thursday, September 30, 2010

jo aap dena chahe

इन आँखों ने वो मंज़र सरेआम देखा,
हुआ गुनाह हमसे हमने वो कत्लेआम देखा/

सरेराह कट रहे थे लोग जाने क्या था माजरा,
निकला सुब्ह देर से सूरज उसे भी हमने परेशान देखा/
थी कसक बाकी अभी तक चोट थी अब तक हरी,
तिलमिला उठे थे सब जब मुआवजे का पैगाम देखा/
दौलत की दलदल में फंसे आकाओं की हम क्या कहें,
थे मशगूल वो महफ़िल में तब जब हमने वो कोहराम देखा/
हूँ इश्क का शायर लिखता हूँ मुहब्बत का कलाम,
ये अचानक क्या हुआ इस कलम को यूँ बेजान देखा/
उस अच्छे वक़्त में तो साथ निभा रहे थे वो,
घिन आ गई शायद उन्हें हमें जब लहूलुहान देखा/
था फलक तक ये भरोसा था यकीं आयेगा वो,
मिट गईं उम्मीद सारी जब अपना वो निगेबान देखा