Monday, August 6, 2012

एक अरसा हो गया गाँव को देखे|
उन कच्चे रास्तों को
जो सुना है पक चुके हैं|
वो बम्बा जिसमें पानी की जगह
मूंज ठाड़ी है|
गाँव जाने के रास्ते में पड़ता
वो दुमंजिला टुअल|
वो बाग़ जहाँ खाने को चूरन
धोये थे आलू|
वो मरघट जिसकी कब्रों पर

कच्चे अनार खाए थे दुबककर|
घर के सामने वो चबूतरा
जहाँ जाड़े की रात में खाट पर लेटे
बाबा ने बताया था सप्तऋषियों को|
और याद आता है
वो अम्मा से छिपकर दोस्तों संग
घर घर जाना टेसू लेकर|
वो पातीराम धोबी
चुराकर पी थी जिसकी बीड़ी|
वो गूलर का पेड़
जिसके गूलरों में
हर साल लग जाते थे कीड़े|
वो पोखर जहाँ अपनी भैंसों
संग हम भी नहाते थे|
वो तेलिया जिसकी टोली का हत्था
फेंका था कुँए में|
संकरपुर का वो टेलर जिसने
फैशन वाली बेलबाटम पेंट
सिली थी तीस रुपये में|
वो लंगड़ा नाऊ जिसके डब्बे में
जया प्रदा की तस्वीर थी|

जाऊँगा किसी दिन तथाकथित सभ्य बनकर

सारे असभ्य जो बसते हैं वहां|
 
~ललित किशोर गौतम

No comments:

Post a Comment