Tuesday, January 18, 2011

"सशर्त संवेदनाएं"

सर्द रात में जब ठण्ड
अपने चरम पर थी,
था कुहासा और राह
में कोई आवाज़ न थी,
दूर फलक पर ध्रुव
टिमटिमा रहा था, मानो
अभावग्रस्तों की दुर्दशा पर
आंसू बहा रहा था,
चीथड़ों में लिपटा हुआ वो
मकान के उस कोने पर,
गन्दगी के ढेर का आभास
दे रहा था, वहीं गली के एक
नुक्कड़ पर निगाह से थोड़ी दूर,
मैंने देखा अलाव के पास बैठा
गोरखा, बीडी सुलगा रहा था,
उन आलीशान इमारतों की
खिडकियों में मैंने देखा,
प्रबुद्ध और संवेदनशील समाज
रजाइयों में दुबका ठण्ड से पीड़ित
व्यक्तियों पर आंसू बहा रहा था,
कल के सत्र में लोकसभा के
ख़ासा हंगामा हो गया, बात ये थी,
विधेयक सांसदों के वेतनमान का
ध्वनिमत से पारित हो रहा था,
इन्हीं संवेदनाओं, कल्पनाओं के
झाँझावात में उलझा हुआ मैं
गरम फ़र और दस्तानों में
बुद्धिजीवी होने का फ़र्ज़
अदा कर रहा था, तभी
अचानक उस मयखाने का
दरवाज़ा खुला, लड़खड़ाते हुए
वो असंवेदनशील और समाज
से ख़ारिज़ एक इंसान उस
गंदगी के ढेर की ओर जा रहा था,
वो रुका थोड़ा सहमा, संभलकर
उसके नजदीक गया,
थोड़ी गुफ़्तगू के बाद उनकी,
मैंने देखा, वो अपना कम्बल
उतार रहा था,
और मैं बुद्धिजीवी, दानिशवर,
और अतिसंवेदनशील व्यक्ति,
तार तार हुई अपनी बुद्धिजीविता
और संवेदनशीलता को समेट रहा था/


~ललित किशोर गौतम

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