Thursday, April 5, 2012

चल चला

ये मन चला उधर चला|
मदमस्त हो मैं ये चला|

तलाश थी विकल्प की,
सार्थक संकल्प की,
अजिज आ चुके थे हम,
उठाके ग़म हरकदम,
काट अंग नासूर का,
स्वस्थ हो मैं ये चला|

बोल बोल थक गया,
वो बिम्ब था जो घुल गया,
काहे को तुम यूँ रोते हो,
काटोगे वो जो बोते हो,
दर्शनों को झाड़कर,
सूधी गैल मैं चला|

हमारा अलहदा है फ़लसफ़ा,
लोग होते हों तो हों ख़फ़ा,
है चार दिन की ज़िन्दगी,
करो तुम ही उनकी बंदगी,
बेक़रार उनको छोड़कर,
क़रार संग मैं चला|

अभिमान है तो क्या करूँ,
जो बोलो तुम मैं सो करूँ,
मन को ग़र बदल भी दूँ,
आत्मा को कैसे त्याग दूँ,
बुझाके कुछ पहेलियाँ,
सुराग ढूँढने चला|

"कहे खुद को ये प्रचंड है,
इसका ये घमंड है,"
उनकी ऐसी बातों पर,
ठठाकर मैं हंस पड़ा,
हाहा हाहा हाहा हाहा,
मन मसोसकर वो रह गए,
खिलखिलाता मैं चला|

ये मन चला उधर चला|
मदमस्त हो मैं ये चला|

~ललित किशोर गौतम

No comments:

Post a Comment