Thursday, September 30, 2010

jo aap dena chahe

इन आँखों ने वो मंज़र सरेआम देखा,
हुआ गुनाह हमसे हमने वो कत्लेआम देखा/

सरेराह कट रहे थे लोग जाने क्या था माजरा,
निकला सुब्ह देर से सूरज उसे भी हमने परेशान देखा/
थी कसक बाकी अभी तक चोट थी अब तक हरी,
तिलमिला उठे थे सब जब मुआवजे का पैगाम देखा/
दौलत की दलदल में फंसे आकाओं की हम क्या कहें,
थे मशगूल वो महफ़िल में तब जब हमने वो कोहराम देखा/
हूँ इश्क का शायर लिखता हूँ मुहब्बत का कलाम,
ये अचानक क्या हुआ इस कलम को यूँ बेजान देखा/
उस अच्छे वक़्त में तो साथ निभा रहे थे वो,
घिन आ गई शायद उन्हें हमें जब लहूलुहान देखा/
था फलक तक ये भरोसा था यकीं आयेगा वो,
मिट गईं उम्मीद सारी जब अपना वो निगेबान देखा

7 comments:

  1. बहुत तेज़ हो..अभी थोड़ी देर पहले तय किया की ब्लॉग शुरू करना है..और तुरंत कर भी दिया!!!
    स्वागत स्वागत स्वागत..... बहुत उम्दा रचना से शुरुआत की है...

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  2. बहुत बहुत शुक्रिया साहब आपकी मेहरबानी है जो शुरुआत हो गई

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  3. @sameer @piyush बहुत बहुत शुक्रिया

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  4. bahut kuch samajh naa aya...hamari hindi aur urdu itni achi nahi hai ......lekin ek baat kahunga ki apne mujhe bejuban kar dia.......bahut khub...maja aa gaya....apne apne andar ki kala ko jana iske liye dher sari shubhkamnaye

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